बहुत से गीत, ग़ज़ल और उससे जुड़ी कहानी सुनने, पढ़ने में बड़ा मजा आता है। मसलन वीर-ज़रा के गीत जो मदन मोहन जी की लाइब्रेरी से लिये जो करीब पच्चीस साल पुराने हैं। 1942-A Love Story का गाना एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा महज पांच मिनिट में तैयार हो गया था। गुलज़ार और आर डी बर्मन के गाने बनाने वाले किस्से भी कम नहीं हैं। लेकिन आज जिस ग़ज़ल के बारे में मैं बात कर रहा हूँ वो मैंने सबसे पहले सुनी 2016 में।

उस समय ज़ी टीवी के एक चैनल पर पाकिस्तानी सीरियल दिखाये जाना शुरू हुए थे और हमसफ़र शीर्षक वाला ये सीरियल मुझे बेहद पसंद आया। फवाद खान और माहिरा का ये सीरियल क्यों पसंद आया कि लिस्ट में एक कारण था उसका शीर्षक गीत – वो हमसफर था। ग़ज़ल के अल्फ़ाज़ कमाल के थे और गायकी भी। कुरैतुलैन बलोच ने इस ग़ज़ल से काफी नाम कमाया था।

Humsafar

जब आप ये ग़ज़ल सुनते हैं तो सीरियल के क़िरदार अशर और ख़िरद और उनकी ज़िंदगी के उतार चढ़ाव ही ध्यान में आते हैं। ग़ज़ल के बोल भी किरदारों का हाल-ए-दिल बयान करता सा लगता है। मसलन:

अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी

इसको पढ़कर लगता है जैसे शायर नसीर तुराबी साहब ने क्या बखूबी बयाँ किया है किरदारों के दिल की हालत। सीरियल में दोनों क़िरदार किसी कारण से अलग हो जाते हैं और ये शेर उसको बखूबी बयान करता है।

हम ऐसे कितने ही गीत, ग़ज़ल सुनते हैं और लगता है उस सिचुएशन को वो शब्द बिल्कुल सही बयाँ करते हैं। लेकिन बाद में पता चलता की उन शब्दों की कहानी ही कुछ और है।

कुछ ऐसा ही हुआ इस सीरियल की ग़ज़ल के साथ। जब सीरियल देखा तो लगा ग़ज़ल के बोल इसके लिए ही लिखे गए थे। लेकिन पिछले दिनों ऐसी ही ये ग़ज़ल YouTube पर सुन रहा था तो पढ़ा की कहानी कुछ और ही है। दरअसल नसीर तुराबी साहब ने ये ग़ज़ल लिखी थी 1971 में और ये किसी प्यार में टूटे दिल के लिये नहीं बल्कि एक अलग हुए देश के लिये लिखी गयी थी। 1971 में पाकिस्तान से अलग होकर बना था बांग्लादेश और शायर ने इससे दुखी हो कर ये ग़ज़ल लिखी थी। जिस हमसफ़र की वो बात कर रहे हैं वो असल में बांग्लादेश है।

इस विडियो में खुद नसीर तुराबी सुना रहे हैं अपनी ग़ज़ल:

कितनी क़माल की बात है कि जो शब्द कुछ देर पहले तक दो किरदारों की ज़िंदगी से जुड़े लगते थे वो दरअसल एक देश के लिए लिखे गये थे। इसे शब्दों की जादूगरी ही कहेंगे कि देश और दिल के हालात एक ही शेर बयाँ कर देते हैं। सलाम है नसीर तुराबी साहब को उनके इस कलाम के लिये।

वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी
कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी 

अपना रंज न औरों का दुख न तेरा मलाल
शब-ए-फ़िराक़ कभी हम ने यूँ गँवाई न थी

मोहब्बतों का सफ़र इस तरह भी गुज़रा था
शिकस्ता-दिल थे मुसाफ़िर शिकस्ता-पाई न थी

अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी

बिछड़ते वक़्त उन आँखों में थी हमारी ग़ज़ल
ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई न थी

किसे पुकार रहा था वो डूबता हुआ दिन
सदा तो आई थी लेकिन कोई दुहाई न थी

कभी ये हाल कि दोनों में यक-दिली थी बहुत
कभी ये मरहला जैसे कि आश्नाई न थी

अजीब होती है राह-ए-सुख़न भी देख ‘नसीर’
वहाँ भी आ गए आख़िर, जहाँ रसाई न थी

ये सीरियल के लिये रिकॉर्ड हुई ग़ज़ल का विडियो: